Physics in Ancient India
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गुण


भूमिका (INTRODUCTION)
प्रथम चार द्रव्य अर्थात् ठोस (पृथ्वी), द्रव (अप्), ऊर्जा, (तेज) एवं गैस (वायु) सनातन राशियाँ नहीं हैं, जबकि 'प्लाज्मा' (आकाश), समय (काल) एवं सदिश लम्बाई (दिक्) सनातन राशियाँ हैं। अत: उपर्युक्त प्रथम चार नियत (Finit) राशियाँ हैं और शेष का अभिप्राय सतत (Continium) राशियों से है। इस वर्गीकरण के कारण 'गुण' भी तीन प्रकार के प्राप्त होते हैं, कुछ नियत से सम्बद्ध रहते हैं, तो कुछ मात्र 'सतत' से और शेष दोनों से सम्बन्धित हैं।
वैशेषिक आचार्यों ने गुणों के विषय में ग्रन्थ ग्रन्थान्तरों में अपने-अपने विचार व्यक्त किये हैं। प्रस्तुत विवेचन में आत्मा (Soul) और मन (Mind) से सम्बद्ध गुणों- बुद्धि (Cognition), सुख (Pleasure), दु:ख (Pain), इच्छा (Desire), द्वेष (Aversion), प्रयत्न (Voliation), धर्म (Cosmic Order), अधर्म (Cosmic degeneracy/entropy), भावना संस्कार (Emotional Force) के व्यतिरिक्त शेष गुणों अर्थात् पार्थक्य (Separatichess), रूप (Colour), रस (Taste), गन्ध (Smell), स्पर्श (temperature), संख्या (Number), परिमाण (Unit), संयोग (Conjunction), विभाग (Disjunction), परत्त्व (Largeness), अपरत्त्व (Smallness), गुरुत्त्व (Gravity), द्रवत्त्व (cohesion), स्नेहत्व (Adhesion), संस्कारऱ्यांत्रिक और स्थिति स्थापक (Force, Mechanical and Elastic) पर विचार किया गया है।
इन गुणों को दो वर्गों - 1 सामान्य (General) और विशेष (Specific) में विभक्त किया गया है। सामान्य गुणों में - संख्या, परिमाण, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, यांत्रिक और स्थितिस्थापक संस्कार को सम्मिलित किया जाता है और विशेष गुणों में-रूप, रस, गंध, स्पर्श, स्नेहत्व, द्रवत्व और शब्दवृत्ति की गणना की जाती है। उपर्युक्त वर्गीकरण को आगामी चित्र से समझा जा सकता है।


सामान्य गुण (General Properties)
सामान्य गुणों के अन्तर्गत परिगणित संख्या और परिमाण का अन्य गुणों की अपेक्षा अधिक महत्व है क्योंकि इनके आधार पर ही अन्य गुणों का यथार्थ मापन सम्भव होता है। उदाहरणार्थ- 'दिक्' और 'काल' के सन्दर्भ में परत्त्व और अपरत्त्व दोनों ही दो प्रकार के हो सकते हैं। कोई पिण्ड कितना दूर अथवा समीप है, इसका निर्धारण सन्दर्भ बिन्दु से उसकी दूरी के द्वारा किया जाता है। समय (काल) के परत्त्व या अपरत्त्व के आधार पर अग्रता (Priority) या पश्चता (Posteriority) का निर्धारण एक मानक घड़ी को सन्दर्भ मानकर किया जाता है। अत: त्रिआयामी दिक् और काल-सातत्य के साथ ही यथोचित परिमाण और संख्या के ज्ञान से नियत द्रव्य राशियों (ठोस, द्रव, गैस एवं ऊर्जा) की स्थिति को परिभाषित कर सकते हैं। इसी प्रकार से संयोग एवं विभाग (परिच्छेद एकादश), गुरुत्व (परिच्छेद चतुर्दश), द्रवत्व (चतुर्थ, सप्तम, अष्टम एवं नवम् परिच्छेद( एवं संस्कार ('यांत्रिक' द्वादश परिच्छेद और 'स्थिति स्थापक त्रयोदश परिच्छेद) का विवेचन यथोचित स्थानों पर किया गया है।
विशेष गुण (Specific Properties)
भौतिकी में रस (Taste) और गन्ध (Smell) गुणों का अधिक महत्त्व नहीं हैं, प्रत्युत 'स्नेह' (adhesion) और द्रवत्व (cohesion) महत्त्व वाले गुण हैं, जिनकी अष्टम परिच्छेद में विवेचना की गई है।
भौतिकी के अध्ययन की सम्पूर्णता हेतु 'रूप' (Colour) अष्टादश परिच्छेद, स्पर्श (Temperature) सप्तदश परिच्छेद और 'शब्दवृत्ति' (wave aspect) के अध्ययन की आवश्यकता, विशेष महत्त्व रखती है।
प्रस्तुत में विशेष गुणों की चर्चा पंचदश एवं षोडश परिच्छेद में क्रमश: 'शब्दवृत्ति' और तेज (ऊर्जा) पर प्रासङ्गिक विवरण दिया गया है।
भौतिकी में मापन (Measurement in Physics)
प्रस्तुत परिच्छेद में हम मूलभूत भौतिक राशियों (Fundamental Physical Quantities) पर चर्चा कर रहे हैं। मापन हेतु तीन आवश्यक राशियाँ हैं-दिक् (Length), पार्थिवमान (Mass) और काल (Time), जो कर्म (Motion) के मापन का मार्ग प्रशस्त करती है (एकादश परिच्छेद)।
लम्बाई का मापन : दिक् परिमेयत्व (Measurement of Length)
ठोस, द्रव और गैस में दिक् रूप परिमेयता का गुण विद्यमान होता है। अपनी अवस्था के आधार पर ये ठोस, द्रव और गैस, अवकाश (Space) में एक आयतन घेरते हैं। आयतन एक राशि है जो लम्बाई के रूप में मापित होती है। इस प्रकार पदार्थ द्वारा घेरे हुए स्थान के सम्यक् ज्ञान हेतु लम्बाई, क्षेत्रफल और आयतन का ज्ञान परमावश्यक है।
लम्बाई, क्षेत्रफल और आयतन के परिमाण
उपर्युक्त घटकों के ज्ञान हेतु दिक् (सदिश लम्बाई) का ज्ञान महत्त्वपूर्ण है।
दिक् के विषय में वैशेषिक सिद्धान्त अधोलिखितानुसारी है। 2
'दिक्' वह है जिसके कारण एक प्रेक्षक किसी वस्तु को दूर अथवा समीप (पास) अनुभव करता है। यह 'दिक्' सनातन् राशि है, क्योंकि यह अनन्त है। इसको एक नियत द्रव्य पिण्ड या एक आकाशीय पिण्ड (ग्रह) के सन्दर्भ में पूर्व दिशा की ओर, पश्चिम दिशा की ओर, इत्यादि विभिन्न प्रकार की उपाधियों से जाना जाता है। साधारणत: सूर्योदय के अभिमुख खड़े व्यक्ति के सम्मुख की दिशा पूर्व है और सूर्यास्त के अभिमुख खड़े उसी प्रेक्षक के सम्मुख की दिशा पश्चिम होती है। इसी प्रकार 'सुमेरु' (उत्तरी ध्रुव) के अभिमुख प्रेक्षक के सम्मुख की दिशा उत्तर और इसके ठीक विपरीत 'कुमेरु' (दक्षिण ध्रुव) दिशा दक्षिण होती है।
प्रकृत प्रसङ्ग में यह समझ लेना अत्यावश्यक है कि दिक् द्वारा किसी वस्तु के दूरत्व (Farness) या निकटत्व (closeness) के असंदिग्ध निर्धारण हेतु दिशा में 'परिमाण' और 'संख्या' का ज्ञान होना आवश्यक माना जाता है क्योंकि निश्चित दो बिन्दुओं के मध्य की दूरी (the distance between the two points) के मापन व्यवहार हेतु 'परिमाण' का ज्ञान ही मुख्य होता है।
उस परिमाण की सहायता से हम किन्हीं दो बिन्दुओं के मध्य की दूरी को सहजतया माप सकते हैं। 3
अत: निर्धारित किये गये दो बिन्दुओं के मध्य इस 'इकाई लम्बाई' (दिक् परिमाण) की पुनरावृत्ति संख्या और साथ ही इस परिमाण के अंश भाग, यदि हों, के द्वारा बिन्दुओं के मध्य दूरी (लम्बाई) को परिभाषित करते हैं।
इस हेतु किसी दी हुई दिशा में लम्बाई का निरूपण संख्या 4 और परिमाण को एक साथ मिलाकर होता है। जोड़ (योग) (Addition), घटाव (अन्तर) (Substraction), गुणा (Multiplication), भाग (Division), वर्ग (Square) और वर्गमूल (Square Root) आदि के नियमों का वर्णन संस्कृत के ज्योतिष गणितों में सम्यक् प्रकार से उपवर्णित है। यह षट्कर्मात्मक गणित, न्याय-दर्शन (Logic) पर आधारित है और इसका प्रयोग शाब्दिक वर्णन के स्थान पर किया जा सकता है। अत: गणित और पद्धतियों के अनुप्रयोग से वस्तु से सम्बन्धित क्षेत्रफल और आयतन का परिमाणात्मक निरूपण सम्भव हो जाता है जबकि शाब्दिक वर्णन की प्रक्रिया उनके विषय में मात्र गुण सम्बन्धी विचार प्रस्तुत करना है।
प्रत्येक भौतिक राशि के लिये, समान 'जाति' के लिये एक परिमाण (Same dimension) एवं उस गृहीत परिमाण को एक अथवा इकाई के रूप में व्यवहृत किया जाता है। लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई, दो बिन्दुओं के मध्य की दूरी इत्यादि एक ही जाति की राशियाँ हैं। इनका प्राचीन काल में प्रचलित-अंगुल, हस्त, दण्ड योजन 5 इत्यादि परिमापों से मापन होता है।
पिण्ड की बाह्य-आकृति की समतल सतह या वक्र सतह के क्षेत्रफल (Area) के मापन हेतु वर्ग अंगुल, वर्गहस्त, वर्गदण्ड, वर्गयोजन इत्यादि परिमाण हैं। इसी प्रकार पिण्ड के आयतन (Volume) के मापन हेतु घन अंगुल, घन हस्त इत्यादि माप होंगे।
संख्या (The Number)
वह पद (Term), जो परिमाण की आवृत्ति (Times or multiples) या परिमाण के अंशों की माप में प्रयुक्त होता है, संख्या कहलाता है। गणना प्रक्रम में प्रयुक्त संख्याएँ जैसे दहाई, सैकड़ा, हजार इत्यादि परस्पर जाति की संख्या प्रदर्शित करती है।
ये जातियाँ स्वयं ही अपना परिमाण भी निर्देशित कर देती हैं। 6
प्रत्येक वस्तु के समस्त गुण सदैव सीधे ही मापन योग्य नहीं होते। उदाहरणार्थ बेलनाकार छिद्र का आयतन, सूर्य चन्द्रादि ग्रहों की दूरियाँ, पृथ्वी का आयतन, दो पिण्डों के आयतन में अन्तर इत्यादि का मापन सीधे ही नहीं हो सकता। इस हेतु जब कभी भी सीधा मापन सम्भव न होने पर तुल्यता विधि (analogy) का अवलम्बन करके गणितीय सिद्धान्तों के यथार्थ ज्ञान पर विश्वास किया जाता है।
गणित (Mathematics)
गणितीय निष्कर्षो के आधार पर साधारण और सरल विधियों की रचना की जाती है कि बहुधा मापन अथवा गणना में प्रयुक्त होने वाली विधियों के विज्ञान को गणित कहा जाता है। गणित न्यायशास्त्र (Logic) की एक 'कला' विशेष है, जो न्यायशास्त्रीय सिद्धान्तों को गणितीय भाषा में अभिव्यक्त करने में पूर्ण समर्थ है। गणितीय सिद्धान्तों पर निर्भर करती है, इस हेतु गणितीय पद्धति से निर्धारित मान (value) न्यायशास्त्र की अन्य किसी काल्पनिक विधि की तुलना में, वास्तविकता के अति निकट होता है।
गणित में मुख्यत: संख्या, रेखा, क्षेत्रफल, आयतन, (Number, Line, Area and Volume) इत्यादि और उनकी समानता एवं असमानता विषयक चर्चा की जाती है। इसके द्वारा निकाला गया परिणाम जोड़, घटाव इत्यादि नियमों और अन्य गणितीय प्रक्रियाओं पर आधारित होता है। ये समस्त गणितीय सिद्धान्त और क्रियाएँ न्यायशास्त्रीय कसौटी पर परखे जाने पर ही गणितज्ञों द्वारा स्वीकार किये जाते हैं।
इस विषय में भास्कराचार्य लीलावतीकार ने स्पष्ट किया है कि जोड़ और घटाव के नियम किस प्रकार से तर्क के सिद्धान्त पर आधारित हैं। 7
भास्कराचार्य का अभिप्राय यह है कि सीधी अथवा उलटी पद्धति से जोड़ या घटाव अंकों की परस्पर स्थिति को ध्यान में रख कर किया जाता है। अंकों के व्यवहार विषयक उनकी धारणा है कि साधारणत: अंकों का व्यवहार दायें से बायें किया जाता है, यह पद्धति है और इस पद्धति की विपरीत प्रक्रिया उलटी पद्धति है। 8
तर्क (न्यायशास्त्र) के अनुसार जोड़ और घटाव केवल समान जाति (वर्ग या विमा) की राशियों के मध्य ही संभव है। 9
इसी हेतु हम समतुल्य स्थानों वाले अंकों का जोड़ या घटाव करते हैं। अत: संक्षेपार्थ यही है कि पूर्वोक्त प्रदर्शित पद्धति के समान ही गुणा, भाग, वर्ग, घन एवं अन्य समस्त प्रसङ्ग में तत् विषयक विवेचन अप्रासङ्गिक होने से इस विषय का अधिक विस्तार नहीं किया गया है।
पार्थिव परिमेय (Measurement of Mass)
पिण्डों का पतन 10 (Falling of the bodies), द्रवों का अधोमुख प्रवाह 11 (Downward flow of the liquid), गंध की विद्यमानता, 12 ठोस (पृथ्वी), द्रव (अप) इत्यादि का नैमित्तिक परिवर्तन 13 (Changing of Physical States), दाब और संघात का प्रभाव 14 (Pressure and impact), कर्म 15 (Motion).
ये समस्त वैशेषिक सम्मत ठोस, द्रव और गैसीय अवस्थाओं के मध्य परस्पर एक सम्बन्ध विशेष को प्रदर्शित करते हैं।
प्रकृति में नैमित्तिक परिवर्तनवान् द्रव्य (Matter in Natural States) प्राप्त होते हैं, किन्तु इनका अध्ययन उस प्रकार के पृथ्वी, जल, वायु की, अर्थात् ठोस, आदर्श द्रव और आदर्श गैस की कल्पना से ही सम्भव है। वैशेषिकों ने इस प्रकार के द्रव्यों का अध्ययन किया है। वेदान्त दर्शन का पंचीकरण भी उपर्युक्त प्रयोजन को स्पष्ट करता है।
भौतिकी में भी ठोस, द्रव और गैस का अध्ययन किया गया है। इसके अनुसार अवस्थाओं में परिवर्तन का कारण अन्तराणविक अन्तराल (Intermolecular Space) है। इन समस्त पदार्थो में द्रव्यमान (mass) निहित होता है। वैशेषिक दर्शन में द्रव्यमान (Mass) को 'पार्थिव परिमाण' या 'पार्थिवमान' कहते हैं।
पार्थिव परिमाण के अनुसार मापन की इकाई (परिमाण : Unit) 'माष' (masa) है जो एक धन अंगुलि आयतन के जल के पार्थिवमान के समतुल्य होता है। 16
इसको तुला (Balance) की सहायता से निर्धारित किया जा सकता है। 17
काल (Time)
काल 18 वह है जिसके द्वारा क्रमिक विकास को समझा जाता है। यह 'दिक्' (सदिश लम्बाई) जैसी एक राशि है।
एक काल की प्रतीति, अनेक काल में होने का ज्ञान, विलम्ब से होने की प्रतीति, शीघ्र होने का ज्ञान एवं कालिक परत्व या अपरत्व (ज्येष्ठ तथा कनिष्ठ) के ज्ञान की प्रतीति 'काल' (Time) को सिद्ध करती है। 19
जब यह राशि नियत भौतिक राशियों के संयोग में आती है, तो उनके गुण कर्म (Motion) इत्यादि में परिवर्तन का अनुभव होता है।
प्रस्तुत परिच्छेद के खण्ड-२ में काल की दीर्घता या लघुता पर चर्चा करते समय हमने काल का मापन मानक घड़ी को संदर्भ मानकर किया है। काल की पूर्वकालिकता या उत्तरकालिकता को परिभाषित करने हेतु एक परिमाण (Unit) और संख्या (Number) की आवश्यकता होती है।
वैशेषिक ग्रन्थों में तत्काल प्रसिद्ध कई परिमाणों (इकाईयों) को निर्दिष्ट किया गया है। उदाहरणार्थ- क्षण, लव, निमेष, काष्ठा, मुहूर्त, याम, अहोरात्र, अर्धमास, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, कल्प, मन्वन्तर, प्रलय तथा महाप्रलय। 20
इसके विस्तृत विवरण हेतु गणित शास्त्र का अवलोकन किया जाना चाहिये, क्योंकि प्राचीन काल में गणित शास्त्र और ज्योतिष दर्शन में घनिष्ठता (allied subjects) थी।
ज्योतिष शास्त्र दो परिमाणों (इकाईयों) 'नाक्षत्र दिन' (Sidereal Day) और 'सावन दिन' अथवा 'सूर्य दिन' (Solar Day) को काल के महत्त्वपूर्ण परिमाण के रूप में प्रस्तुत करता है। 'नाक्षत्र दिन' स्थिर (Constant) अवधि का होता है इस हेतु इसका प्रयोग काल के परिमाण के रूप में किया जा सकता है, परन्तु यह एक सुविधाजनक परिमाण नहीं है। अत: निश्चित रूप से हमें एक ऐसे परिमाण की आवश्यकता है जो सूर्य द्वारा निर्धारित किये गये दिन से निकट सम्बन्ध रखता हो। 'सूर्य दिन' अथवा 'सावन दिन' हमारी पूर्वोक्त आवश्यकता को पूर्ण करता है।
'सूर्य सिद्धान्त' में इसका उल्लेख है। 21
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References
1
प्रशस्तपाद, प्रशस्तपाद भाष्ये गुण विवेचनम्, (६०० ई. पू.),
"सामान्य गुणा: -
संख्या-परिमाण-पृथकत्व-संयोग-विभाग-परत्व- अपरत्व-गुरुत्व, द्रवत्व-संस्कार इति।।
विशेष गुणा: -रूप-रस-गन्ध, स्पर्श-स्नेह-सांसिद्धिकद्रवत्व-शब्द-इति।।"
2
भट्टाचार्य, भाषा परिच्छेद ४६-४७, (४०० ई. पू.),
"दूरान्तिकादिधी हेतुरेकानित्या दिगुच्यते। उपाधिभेदादेकाऽपि प्राच्यादिव्यपदेशभाक्।।"
3
भट्टाचार्य, भाषा परिच्छेद १०९, (४०० ई. पू.),
"परिमाणं भवेन्मानं व्यवहारस्य कारणम्।"
4
भट्टाचार्य, भाषा परिच्छेद १०९,
(४०० ई. पू.),"गणना व्यवहारे तु हेतु संख्याभिधीयते।"
5
९६ अंगुल = ४ हस्त = १ दंड = १ मीटर
6
भाष्कराचार्य, लीलावती, (१११४ ई.),
"एकं दशं शतसहस्त्रायुत लक्ष प्रयुत कोटय: क्रमश:।
अर्बुदमब्जं खर्वनिखर्वमहापद्मशंखवस्तस्मात्।।
जलधिश्चान्त्यं मध्यं परार्धमिति दशोत्तरा संज्ञा:
संख्यानां व्यवहारार्थं कृता: पूर्वै:।।२।।"
7
भास्कराचार्य, लीलावती, (१११४ ई.),
"कार्य: क्रमादुत्क्रमतोथवांकयोगो
यथा स्थानकमन्तरं वा।।३।।"
8
भास्कराचार्य, लीलावती, (१११४ ई.),
"रूढ़िक्रमानुसार क्रमत:-
अंकानां वामतो गति:।"
9
सामान्य -सप्तदश अध्याय
10
महर्षि कणाद्, वैशेषिक सूत्र ५-१-१८, (६०० ई. पू.),
"संस्काराभावे गुरुत्वात् पतनम्"
11
महर्षि कणाद्, वैशेषिक सूत्र ५-२-२, (६०० ई. पू.),
"अपां संयोगाभावे गुरुत्वात् पतनम्"
12
महर्षि कणाद्, वैशेषिक सूत्र (२-२-१,२),प्रशस्तपाद, -भाष्य,
द्रव्यग्रन्थे पृथिवीनिरूपणम् (६०० ई. पू.),
"क्षितावेव गंध:। अयमस्यार्थ: केवल एवायमसाधारण धर्म इति। सुगन्धि सलिलं सुगन्धि: समीरणइति प्रत्ययाद् द्रव्यान्तरेऽपि गंधोऽस्ति चेन्न, पार्थिवद्रव्यसमवायेन तद्गुणोपलब्धे:।"
13
महर्षि कणाद्, वैशेषिक सूत्र अ.२/आ.२/सू. ६-७ (कारिकावली १५४-१५६) (६०० ई. पू.)
14
महर्षि कणाद्, वैशेषिक सूत्र (५-२-१), (६०० ई. पू.),
"नोदनाभिघातात् संयुक्त संयोगाच्च पृथिव्यां कर्म"
15
महर्षि कणाद्, वैशेषिक सूत्र , (६०० ई. पू.),
"तृणे कर्म वायु संयोगात्" (५-१-१४)
"अपां संयोगाद्विभागाच्च स्तनयित्नो:" (५-२-१२)
"अग्नेरूर्ध्वं ज्वलनं वायोस्तिर्यक् पवनमणूनां
(मनसश्च) चाद्यं कर्म्मादृष्टकारितम्" (५-२-१४) इत्यादि।
16
वैज्ञानिक गवेषणा-सप्तम परिच्छेद।
17
तुला -सप्तम परिच्छेद
18
१)महर्षि कणाद्, वैशेषिक सूत्र (२-२-६), (६०० ई. पू.),
"अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिंगानि।"
२)प्रशस्तपाद, -भाष्यम्, (६०० ई. पू.),
"काल: परापरव्यतिकरयौगपद्यायोगपद्यं चिरक्षिप्र प्रत्यय लिंगम्। तेषां विषयेषु पूर्वप्रत्यय विलक्षणानामुप्तन्नावन्य निमित्ताभावाद् यदत्र निमित्तं स काल:। सर्वकार्याणां चोत्पत्ति स्थिति विनाश हेतुस्तद्व्यपदेशात्"
३)भट्टाचार्य,-भाषा परिच्छेद- ४५,
"जन्यानां जनक: कालो जगतामाश्रयो मत:।।"
४)डॉ० नारायण गोपाल डोंगरे, वैशेषिक सिद्धान्तानां गणितीय पद्धत्या विमर्श:, पृ.२९, (१९९५)
''कलयतीति काल इति व्युत्पादयन्ति शब्दानुशासका वैरयाकरणा:। एतर्हि वस्तुषु गुणकर्मादीनां परिवर्तनं कालत एव बोध्यते।"
५)महर्षि कणाद्, वैशेषिक सूत्र (७-२-२२), (६०० ई. पू.),
"तत्र एक दिक् कालाभ्यां तन्निकृष्टविप्रकृटाभ्यां परमपर०च।"
19
१) प्रशस्तपाद, -भाष्यम्, (६०० ई. पू.),
"क्षणलवनिमेषकाष्ठाकलामुहूर्तयामाहोरात्रार्धमासर्त्वयन -
संवत्सरयुगकल्पमन्वन्तरप्रलयमहाप्रलयव्यवहारहेतु"
२) भट्टाचार्य, भाषा परिच्छेद- ४५,
"परापरत्वधी हेतु: क्षणादि: स्यादुपाधित:"
20
प्रशस्तपाद, -भाष्यम्, न्यायकन्दली टीका (६०० ई. पू.),
''क्षणलवेत्यादि निमेषस्यचतुर्थोभाग: क्षण: क्षणद्वयेन लव:। अक्षिपक्षं कर्मोपलक्षितकालो निमेष इत्यादि गणितशास्त्रानुसारेण प्रत्येतव्यम्।''
21
१) सूर्यसिद्धान्त, मध्यमाधिकार, (५०० ई. पू.),
"अत्रभोदयाभगणै: स्वै: स्वैरूना: स्व स्वोदया:।"
२) सूर्यसिद्धान्त, -टीका, (५०० ई. पू.),
"इत्युक्तेस्तु सर्वेषामेव ग्रहाणां सावन दिनानि स्वस्वोदय द्वयान्तर्गत कालात्मकानि भवन्ति, परञ्च तेषु सूर्यसम्बन्धिसावनानां परमोपयोगित्वात्सावनदिन शब्देनामीभूमि सावनवासरा एव सर्वैगृह्यन्ते।"
संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंञालय, भारत सरकार